Friday, October 12, 2012


आदिवासियों ने अपनी चुप्पी तोड़ी है’

‘आदिवासी पुस्तक मेला और साहित्य संगोष्ठी का मुख्य मकसद झारखंड के आदिवासी साहित्यकारों की रचनात्मक प्रतिभा की खोज है। हम अपने मकसद में बहुत हद तक सफल रहे हैं जिसका परिणाम है कि पुस्तक मेला और संगोष्ठी मं भूमिज, पहाड़िया, असुर, बिरहोर सरीखी आदिम जनजातियों के रचनाकारों की रचनाएं भी हमें उपलब्ध हुई हैं, जो हमारे लिए भी सुखद आश्चर्य का विषय है,’ ये बातें रमणिका फाउंडेशन की अध्यक्ष और अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक मंच की को-ऑर्डिनेटर और प्रसिद्ध साहित्यकार रमणिका गुप्ता ने ‘अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक मंच’, ‘रमणिका फाउंडेशन’ और ‘साहित्य अकादेमी’ और उसके आदिवासी फ्रंट ‘अभासम’ द्वारा रांची में आयोजित तीन दिवसीय पुस्तक मेला सह-संगोष्ठी के उद्घाटन सत्रा के अपने अध्यक्षीय भाषण में कहीं।
इससे पूर्व समारोह की साहित्य संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए रांची विश्वविद्यालय के उप-कुलपति 
डॉ. एल.एन. भगत ने कहाµ‘‘भाषा के महत्व को साहित्यकार ही समझते और संजोते हैं। आदिवासी पुस्तक मेला से झारखंडी साहित्य के विकास में सहयोग मिलेगा। झारखंडी भाषाओं में अभी बहुत काम करने की जरूरत है।’’ पश्चिम बंगाल के पूर्व महालेखाकार बेंजामिन लकड़ा ने पुस्तक मेले का उद्घाटन करते हुए कहाµ‘‘आदिवासियों का जीवन-दर्शन और उनके संघर्ष को आदिवासी ही ज्यादा बेहतर समझ सकते हैं और वही उसे लिख भी सकते हैं।’’
बीज वक्तव्य देते हुए आदिवासी साहित्यिक मंच के महासचिव प्रभाकर तिर्की ने कहाµ ‘‘आदिवासी समाज ने अपनी चुप्पी तोड़ी है। आज वह कलम के जरिये अपनी बातें समाज के सामने रख रहा है।’’
‘बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह में अवतरित हुए... सिद्धो-कान्हू, चांद और भैरो ढाल बन संतालांे के...। जोहार-जोहार! सृष्टिकर्ता सुन लो आज, सिद्धो-कान्हू, चांद और भैरो वापस हमें दे दो आज... अब भी आत्मा धधक रही है, क्रांति की एक प्यास में, व्याकुल हृदय तरस रहा है एक और हूल की आस में! आयोजन के दूसरे दिन, हूल दिवस के खास मौके पर प्रोफेसर प्रीति मुर्मू ने ये काव्यात्मक उद्गार व्यक्त किए। शिवलाल किस्कू ने आदिवासी लड़ाकों की शौर्य गाथा और उनके त्याग की पीड़ा की मार्मिक व्याख्या की।
जोबा मुर्मू ने अपनी कविता ‘अड़ाग सुर’ में कहाµ‘विशाल बरगद पेड़ की छाया में सिद्धो-कान्हू, आपने आजादी का इंतजार किया... कर चुकाते-चुकाते थक गये थे संताल। इसलिए तो आपने विद्रोह का आगाज़ किया...।’
‘हो’ गोत्रा के शोधकर्ता लालसिंह बोयपई ने अपनी कविता में कहाµ‘जायराकांडा राइज तला मला रे दखिन कोल्हान प्रमंडल रे सारंडा बुरू सजावा काना किलि-मिलि तन बुरू...।’ अर्थात झारखंड राज्य के पश्चिमी सिंहभूम में दक्षिण कोल्हान प्रमंडल का सारंडा वन, पहाड़ियों की उ$ंची चोटियांे से सजा है।
चौथे सत्रा में शांति खलको, सत्य नारायण मुंडा, श्याम चरण हेम्ब्रम के अलावा युवा कवयित्राी नीतिशा खलखो व हेसेल सारू की कविता भी खूब सराही गई। लोक-कथा सत्रा की अध्यक्षता राजस्थान के पूर्व पुलिस आयुक्त व वरिष्ठ आदिवासी साहित्यकार हरिराम मीणा ने की।
छठे सत्रा में शौर्यगाथा और सातवें सत्रा में लोकगीत प्रस्तुत किए गए।
मेले के दौरान ‘हो’ भाषा व साहित्य का इतिहास’ के तृतीय संस्करण एवं ‘चौथा चूल्हा’ पुस्तक का लोकार्पण उपकुलपति डॉ. एल.एन. भगत ने किया। दोनों पुस्तकें डॉ. आदित्य प्रसाद सिन्हा ने लिखी हैं। इसके अतिरिक्त पंचपरगनिया मंे लिखी पुस्तक का लोकार्पण भी किया गया।
आयोजन के अंतिम दिन आदिवासी साहित्य और शिक्षा को लेकर तीन प्रस्ताव पारित हुएµ1. आदिवासी भाषा साहित्य अकादमी की राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर स्थापना हो। 2. मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य हो। 
3. त्रिभाषा फार्मूला बदला जाये और नया फार्मूला बनाया जाये जिसमें चार भाषा पढ़ाने की व्यवस्था हो।
एकांकी सत्रा में आकाशवाणी की ग्रेस कुजूर ने डायन पर केंद्रित एकांकी नाटक का पाठ किया। इसमें ज्वलंत सवाल उठा कि स्त्राी ही डायन क्यों, जबकि ओझा पुरुष होते हैं। ग्लोरिया सोरंेग, सिद्धेश्वर सरदार और बालेश्वर सरदार (भूमिज) ने भी एकांकी पढ़कर सुनाया। ‘सृजन मिथक और लोककथा’ सत्रा में ल्सुक सामाद, सुभाषचंद्र मुण्डा, प्रदीप बोदरा, ज्योति लकड़ा और उर्सुला भेंगरा ने भी अपनी बातें रखीं। अध्यक्षता दिगंबर हांसदा ने की, जबकि अध्यक्षता फिल्मकार मेघनाथ ने की।
समापन भाषण देते हुए रमणिका गुप्ता ने कहाµ‘‘इस मेले का उद्देश्य आदिवासियों की सृजनात्मक प्रतिभा को पूरे देश से रूबरू कराना भी है। आदिवासियों की अपनी अद्वितीय साहित्य संस्कृति है, अपना जीवन-दर्शन है। जीवन शैली है। आज उनकी मुख्य समस्या विस्थापन, पलायन और बहिरागत की घुसपैठ है। उनके पास जलµजंगलµजमीन, संस्कृति और अपनी भाषा है।’’ सुश्री गुप्ता ने आदिवासी भाषाओं व पहचान के विलुप्त होने पर चिंता जताते हुए कहाµ‘‘भाषाएं कभी नहीं मरतीं, उन्हें मार दिया जाता है।’’
समापन सत्रा में हरिराम मीणा ने कहाµ ‘‘आदिवासियों के बारे में जिन्हें जानकारी नहीं थी उन्होंने ही उनका इतिहास लिखा। यही वजह थी कि कई तथ्यात्मक भूलें हुईं। ऐसे में उनके इतिहास को नये सिरे से लिखने की जरूरत है। आदिवासियों से जिन्दगी जीने का ढंग सीखना चाहिए। आदिवासी लेखन से हिन्दी साहित्य समृद्ध होगा।’’ 
पुस्तक मेले में दिल्ली के रमणिका फाउंडेशन व आल इंडिया ट्राइबल लिटरेरी फोरम के अतिरिक्त वाणी प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन, इलाहाबाद के के. के. प्रकाशन, साहित्य भारती व झारखंड के अन्य प्रकाशकों व लेखकों ने भी अपने-अपने स्टॉल लगाए थे। ‘पूर्वोत्तर: आदिवासी सृजन और मिथक’, ‘आदिवासी साहित्य यात्रा’, ‘आदिवासी कौन’, ‘आदिवासी शौर्य एवं विद्रोह’, कुमार सुरेश सिंह की ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’, महाश्वेता देवी की ‘जंगल की दावेदार’ सहित कई पुस्तकों को पाठकों ने पसन्द किया और उनकी अच्छी-खासी बिक्री हुई। स्टॉल पर आदिवासियों से संबंधी जर्नल, शोधपरक पुस्तकें, विस्थापन और मानवाधिकार के मसले से जुड़ी सैकड़ों पुस्तकें उपलब्ध थीं। आदिवासी पुस्तक मेले में तीन लाख रुपये से अधिक की पुस्तकें बिकीं जो एक सुखद आश्चर्य से भर देने वाला तथ्य है।


No comments:

Post a Comment